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चलिए आज हम काव्य शास्त्र की परिभाषा, प्रकार और उदाहरण की समस्त जानकारी को पढ़ते और समझते हैं।
काव्य शास्त्र किसे कहते हैं
काव्य तथा साहित्य के दर्शन तथा विज्ञान को काव्य शास्त्र कहा गया है। काव्य शास्त्र का पुराना नाम ‘साहित्य शास्त्र’ है जबकि संस्कृत में इसे ‘अलंकार शास्त्र’ भी कहते हैं।
महादेवी वर्मा के अनुसार काव्य कवि की भावनाओं का चित्रण होता है और यह चित्र इतना सही होता है कि उससे वैसे ही भावनाएं किसी दूसरे की ह्रदय में निर्माण हो जाती है।
सुमित्रानंदन पंत के अनुसार काव्य हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है अर्थात काव्य हमारे जीवन के सुख-दुख, उतार-चढ़ाव आदि को वाणी प्रदान करता है।
प्रेमचंद के अनुसार काव्य जीवन की आलोचना है।
काव्य के प्रकार
काव्य को दो आधारों पर बांटा गया हैं।
- स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद
- शैली के अनुसार काव्य के भेद
स्वरूप के अनुसार काव्य के भेद
स्वरूप के आधार पर काव्य के दो प्रकार होते हैं।
1. श्रव्य काव्य
दूसरे से सुनकर या स्वयं पढ़ कर जिस काव्य का रसास्वादन किया जाता है उसे श्रव्य काव्य कहते हैं।
जैसे : रामायण और महाभारत
2. दृश्य काव्य
जिस काव्य के आनंद का एहसास अभिनय को देखकर एवं पात्रों से कथाओं के कथन को सुन कर होती है उसे दृश्य काव्य कहते हैं।
जैसे : नाटक में या चलचित्र में।
शैली के अनुसार काव्य के प्रकार
शैली के अनुसार काव्य के तीन प्रकार होते हैं :
1. पद्य काव्य :- पद्य काव्य में किसी भी कथा का वर्णन काव्य में किया जाता है।
जैसे : गीतांजलि।
2. गद्य काव्य :- गद्य काव्य में किसी कथा का वर्णन गद्य में किया जाता है।
जैसे : जयशंकर की कमायनी।
3. चंपू काव्य :- चंपू काव्य में किसी कथा के वर्णन में गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है। मैथिलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ चंपू काव्य है।
काव्य के तत्व
भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों ने काव्य के चार तत्व माने हैं।
- भावतत्व
- बुद्धि तत्व
- कल्पना तत्व
- शैली तत्व
1. भाव तत्व
भारतीय आचार्यों ने भाव तत्व को काव्य की आत्मा माना है। यह मानते हैं कि भाव तत्व के बिना साहित्य निर्जीव और निष्प्राण होता है।
संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर जब साहित्य लिखने वाला अपने भाव को, अपने ह्रदय को जब अपने काव्य में प्रकट करता है तब यही भाव रस का रूप धारण करके पढ़ने वाले या सुनने वाले के हृदय को आनंद से भर देता है।
2. बुद्धि तत्व
इसे विचार तत्व भी कहा जाता है। बुद्धि तत्व काव्य में भाव एवं कल्पना का संयोजन करता है। साहित्य लिखने वाले की रचना का एक विशेष उद्देश्य होता है। वह उसके द्वारा पाठकों को एक संदेश देना चाहता है।
इस विशेष उद्देश्य को पूरा करने के लिए वह काव्य के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। यही विचार साहित्य में बुद्धि तत्व कहलाते हैं।
3. कल्पना तत्व
कल्पना शब्द का मतलब होता है मन में कुछ धारणा करना। कल्पना द्वारा साहित्य लिखने वाला अमूर्त वस्तुओं को भी मूर्त रूप प्रदान करता है और इसी कल्पना शक्ति के द्वारा वह अपनी रचना में उन्हीं चित्रों को पाठक के सामने लाकर रख देता है।
4. शैली तत्व
अनुभूति, भाव तथा कल्पना कितने ही सही क्यों ना हो लेकिन शैली तत्व के बिना वह अधूरे रह जाएंगे। भाव की अभिव्यक्ति के लिए भाषा शरीर का काम करती है।
भाव को अच्छे से बताने के लिए अनुकूल भाषा की जरूरत होती है। शैली तत्व के अंतर्गत भाषा का महत्वपूर्ण स्थान होता है। इसके अंतर्गत शब्द, भाषा, अलंकार, छंद, शब्द शक्ति आदि का समावेश होता है।
काव्य के गुण
परिभाषा : काव्य की शोभा बढ़ाने वाले धर्म ही गुण कहलाते हैं। जिस तरह मनुष्य में दया, प्रेम, परोपकार, वीरता इत्यादि गुण पाए जाते हैं। उसी प्रकार काव्य में भी ओज, माधुर्य इत्यादि काव्य गुण पाए जाते हैं।
काव्य गुणों का वर्गीकरण :
1. प्रसाद गुण :- जब किसी काव्य में इतने आसान शब्दों का प्रयोग किया जाता है कि एक सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी आसानी से उसे समझ लेता है, तो वहां प्रसाद गुण माना जाता है। स्पष्टता और स्वच्छता प्रसाद गुण की प्रमुख विशेषताएं मानी जाती है।
2. ओज गुण :- जब किसी काव्य को पढ़ने से हमारे मन में जोश, वीरता, क्रोध, भय इत्यादि जैसे भाव उत्पन्न होते हैं तो वहां ओज गुण माना जाता है। वीर, भयानक, विभत्स इत्यादि रसों से युक्त रचनाओं में प्रायः ओज गुण ही पाया जाता है।
3. माधुर्य गुण :- जब किसी काव्य को पढ़ने से हमारे मन में करुणा या हास्य का भाव उत्पन्न होता है तो वहां माधुर्य गुण माना जाता है। श्रृंगार, हास्य इत्यादि रसों से युक्त रचनाओं में प्रायः माधुर्य गुण पाया जाता है।
काव्य के दोष
परिभाषा : यदि किसी काव्य में किसी प्रकार की कोई कमी रह जाती है तो उसे काव्य दोष कहा जाता है।
प्रमुख काव्य दोष :
1. श्रुति कटुत्व दोष :- श्रुति कटुत्व का मतलब होता है सुनने में कठोर लगना अर्थात जब किसी काव्य में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जो सुनने में कठोर लगते हैं, तो यह दोष माना जाता है।
जैसे : पावन पद वदन करके प्रभु कब कात्यार्थ मिले मुझसे।
2. ग्राम्यत्व दोष :- यदि कोई कवि काव्य में साहित्यिक शब्दों के स्थान पर ग्रामीण बोलचाल की भाषा में शब्दों का प्रयोग करता है तो वहां ग्राम्यत्व दोष माना जाता है।
जैसे : मूड पर मुकुट धरै सोहत है गोपाल
3. क्लिष्टत्व दोष :- जब किसी वाक्य में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया जाता है कि एक सामान्य पाठक तो क्या बड़े-बड़े विद्वान भी मुश्किल से ही उसका अर्थ समझ पाते हैं तो वहां क्लिष्टत्व दोष माना जाता है।
जैसे :
षट्पद षट कर षट करण, नेत्र दोय तन तीन
ता रिपु सुत के, चरण में सदा रहो लवलीन।
अर्थात हमें सदैव भगवान राम के चरणों में नतमस्तक रहना चाहिए।
4. अप्रतीतत्व दोष :- जब किसी काव्य में लोक प्रसिद्धि अर्थ के विपरीत अर्थ में किसी शब्द का प्रयोग कर दिया जाता है, तो वहां अप्रतीतत्व दोष माना जाता है।
जैसे : विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देता।
यहां पर प्रयोग किए गए विष शब्द का लोक प्रसिद्ध अर्थ जहर होता है लेकिन कवि ने इस काव्य में इसका प्रयोग पानी के अर्थ में किया है।
5. दुष्कर्मत्व दोष :- जब किसी काव्य में प्रकट की जाने वाली बातों को उसके सही क्रम के अनुसार प्रस्तुत नहीं किया जाता है अर्थात जो बात पहले कहीं जानी चाहिए वह बाद में कहीं जाती है और जो बाद में कही जानी चाहिए वह पहले कही जाती है तो दुष्कर्मत्व दोष पाया जाता है।
जैसे : नृप मो कह हय दीजिए अथवा मत गजेंद्र
6. अक्रमत्व दोष :- जब किसी काव्य में शब्द को उसके सही स्थान पर नहीं रखा जाता तो वहां यह दोष माना जाता है।
काव्य के शब्द शक्ति
किसी भी शब्द में अंतर्निहित अर्थ को प्रकट करने वाली शक्ति शब्द शक्ति कहलाती है।
अर्थ के आधार पर शब्द तीन प्रकार के माने जाते हैं।
- वाचक शब्द
- लक्षक शब्द
- व्यंजक शब्द
इन तीनों शब्दों के आधार पर शब्द शक्ति के भी तीन प्रकार माने जाते हैं।
1. अभिधा शब्द शक्ति
यदि किसी शब्द का वाक्य में प्रयोग किए जाने पर उस शब्द का मुख्य अर्थ प्रकट होता है तो वहां वह शब्द वाचक शब्द कहलाता है।
उसके द्वारा प्रकट होने वाला अर्थ संकेतित्तार्थ कहलाता है और उस शब्द की शक्ति को अभिधा शब्द शक्ति कहा जाता है।
जैसे : हरि नारद को हरि रूप दिया
पहला हरि शब्द अर्थात विष्णु और दूसरा हरि शब्द का अर्थ बंदर होता है। अर्थात यदि किसी पद में यमक अलंकार प्राप्त हो रहा हो तो वह हमेशा अभिधा शब्द शक्ति ही मानी जाती है।
2. लक्षणा शब्द शक्ति
किसी वाक्य में प्रयोग किए जाने पर यदि कोई शब्द अपने मुख्य अर्थ को प्रकट नहीं करके लक्षणों के आधार पर किसी दूसरे अर्थ को प्रकट करता है तो वहां वह शब्द लक्षक शब्द कहलाता है।
उसके द्वारा प्रकट होने वाला अर्थ आरोपितार्थ कहलाता है और उस शब्द की शक्ति को लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं।
जैसे :
- सोहन गधा है।
- गीता तो निरी गाय है।
ऊपर दिए गए दोनों वाक्यों में रेखांकित किए गए शब्द अपने मुख्य अर्थ को प्रकट नहीं कर के दूसरे अर्थ जैसे मूर्ख और सीधी साधी को प्रकट कर रहे हैं। इसलिए यहां लक्षणा शब्द शक्ति मानी जाती है।
हिंदी के महाकाव्य
हिंदी के कुछ महाकाव्यों के नाम नीचे दिए गए हैं।
चंदबरदाईकृत पृथ्वीराज रासो को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
रचनाकार | महाकाव्य |
---|---|
मलिक मुहम्मद जायसी | पद्मावत |
तुलसीदास | रामचरितमानस |
आचार्य केशवदास | रामचंद्रिका |
मैथिलीशरण गुप्त | साकेत |
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध | प्रियप्रवास |
द्वारका प्रसाद मिश्र | कृष्णायन |
जयशंकर प्रसाद | कामायनी |
रामधारी सिंह दिनकर | उर्वशी |
रामकुमार वर्मा | एकलव्य |
बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ | उर्मिला |
गुरुभक्त सिंह | नूरजहां, विक्रमादित्य |
अनूप शर्मा | सिद्धार्थ, वर्द्धमान |
रामानंद तिवारी | पार्वती |
गिरिजा दत्त शुक्ल ‘गिरीश’ | तारक वध |
नन्दलाल सिंह ‘कांतिपति’ | श्रीमान मानव की विकास यात्रा |
“हिंदी के आंसू” | अनिल भारद्वाज |
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