इस पेज पर आज हम तुलसीदास जी के दोहे की जानकारी पड़ेंगे। यदि आप गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय जानना चाहते हैं तो इस पेज को पूरा जरूर पढ़िए।
पिछले पेज पर हमने मीरा बाई के दोहे की जानकारी शेयर की हैं तो उस आर्टिकल को भी पढ़े। चलिए आज हम तुलसीदास जी के दोहे की जानकारी को पढ़ते और समझते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी पर एक नजर
नाम | गोस्वामी तुलसीदास |
जन्म | सन 1532 (संवत – 1589 ) राजापुर, उत्तर प्रदेश |
पिता | आत्माराम दुबे |
माता | हुलसी |
पत्नी | रात्रावली |
कार्यक्षेत्र | कवि, समाज सुधारक |
कर्मभूमि | बनारस |
गुरु | आचार्य रामानंद |
धर्म | हिन्दू धर्म |
काल | भक्ति काल |
विधा | कविता, दोहा, चौपाई |
विषय | सगुण भक्ति |
प्रमुख रचनाएँ | रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, हनुमान चालीसा |
मृत्यु | सन 1623 (संवत – 1660) काशी |
गोस्वामी तुलसीदास (1511 – 1623) जी का जीवन
गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के महान सन्त कवि थे। रामचरितमानस इनका गौरव ग्रन्थ है। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है।
श्री रामचरित मानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है।
इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। तुलसीदास जी स्मार्त वैष्णव थे।
जन्म
गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान विवादित है। अधिकांश विद्वानों व राजकीय साक्ष्यों के अनुसार इनका जन्म सोरों शूकर क्षेत्र, जनपद कासगंज, उत्तर प्रदेश में हुआ था।
कुछ लोग इनका जन्म राजा पुर जिला चित्रकूट में हुआ मानते हैं। सोरों उत्तर प्रदेश के कासगंज जनपद के अंतर्गत एक सतयुगीन तीर्थस्थल शूकर क्षेत्र है।
वहां पं० सच्चिदानंद शुक्ल नामक एक प्रतिष्ठित सनाढ्य ब्राह्मण रहते थे। उनके दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल।
पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास था, जिन्होंने श्री राम चरित्र मानस महा ग्रंथ की रचना की थी।
नंद दास जी के छोटे भाई का नाम चंद्र हास था। नंद दास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंद दास जी के पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंद दास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थ मंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरह मंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रास पंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंद दास पदावली हैं।
बचपन
भगवान की प्रेरणा से शूकर क्षेत्र में रहकर पाठशाला चलाने वाले गुरु नृसिंह चौधरी ने इस राम बोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीदास रखा।
गुरु नृसिंह चौधरी ने ही इन्हें रामायण, पिंगल शास्त्र व गुरु हरि हरा नंद ने इन्हें संगीत की शिक्षा दी। तदो परान्त बदरिया निवासी दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से इनका विवाह हुआ। एक पुत्र भी इन्हें प्राप्त हुआ, जिसका नाम तारा पति/तारक था, जो कि कुछ समय बाद ही काल कवलित हो गया।
रत्नावली के पीहर (बदरिया) चले जाने पर ये रात में ही गंगा को तैरकर पार करके बदरिया जा पहुंचे। तब रत्नावली ने लज्जित होकर इन्हें धिक्कारा। उन्हीं वचनों को सुनकर इनके मन में वैराग्य के अंकुर फूट गए और 36 वर्ष की अवस्था में शूकर क्षेत्र सोरों को सदा के लिए त्यागकर चले गए।
भगवान श्री राम जी से भेंट
कुछ काल राजा पुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला।
जिसने उन्हें हनुमान जी का पता बतलाया। हनुमान जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्री रघुनाथ जी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने कहा – “तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथ जी के दर्शन होगे” इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।
चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने राम घाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं।
तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सांत्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।
संवत् 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-“बाबा !
हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?” हनुमान जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा
चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसीदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥
तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।
संस्कृत में पद्य-रचना
तुलसीदास जी संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए।
वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया।
वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ।
भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए।
तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- “तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।” इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।
रामचरित्रमानस की रचना
संवत् १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैव योग से उस वर्ष राम नवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्री रामचरित्र मानस की रचना प्रारम्भ की।
दो वर्ष, सात महीने और छब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत् १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।
इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री रामचरित्र मानस सुनाया।
रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया सत्यं शिवं सुन्दरम् जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने “सत्यं शिवं सुन्दरम्” की आवाज भी कानों से सुनी।
इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे।
उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुष बाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी।
उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी।
इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।
इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी।
आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः ।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता ॥
इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-“काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।”
पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया।
प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।
तुलसीदास को उनकी पत्नी रत्नावली ने क्यों छोड़ा ?
तुलसीदासजी का विवाह रत्नावली के साथ हुआ था एक समय जब रत्नावली पीहर गई हुई थी तो तुलसीदास उसके लिए बैचेन हो गए भयंकर बरसात में घर से निकल पड़े रास्ते मे नदी को शव के सहारे पार किया ऐसी किवंदती है कि पत्नी के कक्ष में जाने के लिए उन्होंने सर्प का सहारा लिया था।
जब पत्नी ने उन्हें देखा तो सहज ही कह दिया।
“अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति !
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?”
अर्थात ”मेरे इस हाड़–मांस के शरीर के प्रति जितनी तुम्हारी आसक्ति है, उसकी आधी भी अगर प्रभु श्रीराम से की होती तो तुम्हारा जीवन संवर गया होता।
इतना सुनने के बाद तुलसीदास जी निकल पड़े अपने राम की खोज में।
मृत्यु
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा।
तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा।
इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।
संवत् १६८० में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने “राम-राम” कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।
तुलसी-स्तवन
तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलो ग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजा पुर के एक मन्दिर में श्री राम चरित्र मानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है।
रचनाएँ
अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने काल क्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं –
गीतावली (1571), कृष्ण-गीतावली (1571), रामचरितमानस (1574), पार्वती-मंगल (1582), विनय-पत्रिका (1582), जानकी-मंगल (1582), रामललानहछू (1582), दोहावली (1583),वैराग्यसंदीपनी (1612), रामाज्ञाप्रश्न (1612), सतसई, बरवै रामायण (1612), कवितावली (1612), हनुमान बाहुक
इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है – पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।
लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था।
यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।
रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं।
- रामचरितमानस
- रामललानहछू
- वैराग्य-संदीपनी
- बरवै रामायण
- पार्वती-मंगल
- जानकी-मंगल
- रामाज्ञाप्रश्न
- दोहावली
- कवितावली
- गीतावली
- श्रीकृष्ण-गीतावली
- विनय-पत्रिका
- सतसई
- छंदावली रामायण
- कुंडलिया रामायण
- राम शलाका
- संकट मोचन
- करखा रामायण
- रोला रामायण
- झूलना
- छप्पय रामायण
- कवित्त रामायण
- कलिधर्माधर्म निरूपण
- हनुमान चालीसा
‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स'[5] में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।
कुछ ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण
रामललानहछू
यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं।
गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो।
सोभित दूलह राम सीस, पर आंचर हो।।
वैराग्य संदीपनी
वैराग्य संदीपनी को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रवली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते हैं। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा पेश है।
को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत।
जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।
बरवै रामायण
विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है।[7]
पार्वती-मंगल
यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरस है।
“जगत मातु पितु संभु भवानी” की श्रृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है।
लोक रीति इतनी यथास्थिति से चित्रित हुई है कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है।
व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसीलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है।
प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कवि मति मृगलोचनि।।
जानकी-मंगल
विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है। पर इसमें भी क्षेपक है।
पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।।
राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि।
चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।।
रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।।
तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है।
रामाज्ञा प्रश्न
यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते हैं। इसमें कथा-श्रृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण> के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है।
दोहावली
दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी श्रृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, पर रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है।
कवितावली
कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा।
गीतावली
गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है[8]। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है।
इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा – संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है –
कैकेयी जौ लौं जियत रही।
तौ लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।।
मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही।
सीय लखन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही।।
लोक-बेद-मरजाद दोष गुन गति चित चखन चही।
तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।।
इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है –
भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ।
परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।।
पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ।
होइ हित केहि भांति, नित सुविचारु नहिं चित चाउ।।
श्रीकृष्ण गीतावली
श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं।[9]
हनुमानबाहुक
यह गोस्वामी जी की हनुमत-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।
तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था।
उनकी आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो राम काव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंब है।
तुलसीदास के दोहे
1. दिएँ पीठि पाछें लगै सनमुख होत पराइ।
तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गँवाइ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं संपत्ति शरीर की छाया के समान है। इसको पीठ देकर चलने से यह पीछे पीछे चलता है, और सामने होकर चलने से दूर भाग जाता है।
(जो धन से मुँह मोड लेता है, धन की नदी उसके पीछे पीछे बहती चली आती है और जो धन के लिए सदा ललचाता रहता है, उसे सपने में पैसा कभी नहीं मिलता) इस बात को समझकर घर मे ही दिन बिताओं ।
2. तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम ।
सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम ।।
अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि आशा देवी नाम की एक अदभुत देवी है, यह सेवा करने पर दुख देता है और विमुख होने पर सुख देता है ।
3. सोई सेंवर तेइ सुवा सेवत सदा बसंत ।
तुलसी महिमा मोह की सुनत सराहत संत ।।
अर्थ – तुलसीदास कहते है वही सेम लता पेड़ है और वहीं तोते है तो भी मोह वश वसंत ऋतु आने पर सदा उस पर मँडराये रहते है । इस बात को सुनकर संत लोग भी मोह की महिमा की सराहना करते हैं ।
4. ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार ।
केहि कै लोभ बिडंबना कीनिह न एहिं संसार ॥
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पण्डित और गुणों का धाम इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य हैं, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो ॥
5. ब्यापी रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड ।
सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ।।
अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि माया की प्रचंड सेना संसार भर मे फैल रहा हैं कामादि (काम, क्रोध, मद, मोह, और मत्सर) वीर इस सेना के सेनापति हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड उसके योद्धा है।
6. तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग ।
सबसे हस बोलिए नदी नाव संजोग ॥
अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि इस संसार मे कई प्रकार के लोग रहते है। जिनका व्यवहार और स्वभाव अलग अलग होता है।
आप सभी से मिलिए और बात करिए। जैसे नाव नदी से दोस्ती कर अपने मार्ग को पार कर लेता है। वैसे आप अपने अच्छे व्यवहार से इस भव सागर को पार कर लेंगे।
7. बिना तेज के पुरुष की, अवशि अवज्ञा होय ।
आगि बुझे ज्यों राख की, आप छुवै सब कोय ।।
अर्थ – तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है, उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है. ठीक वैसे हीं जैसे, जब राख की आग बुझ जाती है, तो उसे हर कोई छूने लगता है।
8. तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम का नाम ये चीजें मनुष्य का साथ देती है।
9. काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान ।
तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान ।।
अर्थ – जब तक व्यक्ति के मन में काम की भावना, गुस्सा, अहंकार, और लालच भरे हुए होते हैं। तब तक एक ज्ञानी व्यक्ति और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता है, दोनों एक ही जैसे होते हैं।
10. आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह ।
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह ।।
अर्थ – जिस स्थान या जिस घर में आपके जाने से लोग खुश नहीं होते हों और उन लोगों की आँखों में आपके लिए न तो प्रेम और न ही स्नेह हो वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की ही वर्षा क्यों न होती हो।
तुलसीदास के दोहे हिंदी अर्थ सहित
11. मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर ॥
अर्थ – हे रघुवीर, मेरे जैसा कोई दीन हीन नहीं है और तुम्हारे जैसा कोई दीन हीनों का भला करने वाला नहीं है. ऐसा विचार करके, हे रघु वंश मणि मेरे जन्म-मृत्यु के भयानक दुःख को दूर कर दीजिए।
12. कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥
अर्थ – जैसे काम के अधीन व्यक्ति को नारी प्यारी लगती है और लालची व्यक्ति को जैसे धन प्यारा लगता है वैसे ही हे रघुनाथ, हे राम, आप मुझे हमेशा प्यारे लगिए।
7. सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत ।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत ।।
अर्थ – हे उमा, सुनो वह कुल धन्य है, दुनिया के लिए पूज्य है और बहुत पावन (पवित्र) है, जिसमें श्री राम (रघुवीर) की मन से भक्ति करने वाले विनम्र लोग जन्म लेते हैं।
8. मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥
अर्थ – राम मच्छर को भी ब्रह्मा बना सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी छोटा बना सकते हैं ऐसा जानकर बुद्धिमान लोग सारे संदेहों को त्यागकर राम को ही भजते हैं।
9. तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम ।
कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम ।।
बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।
तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ।।
अर्थ – बुरे लोगों की संगती में रहने से अच्छे लोग भी बदनाम हो जाते हैं वे अपनी प्रतिष्ठा गँवा कर छोटे हो जाते हैं ठीक उसी तरह जैसे, किसी व्यक्ति का नाम भले ही देवी-देवता के नाम पर रखा जाए, लेकिन बुरी संगती के कारण उन्हें मान-सम्मान नहीं मिलता है।
जब कोई व्यक्ति बुरी संगती में रहने के बावजूद अपनी काम में सफलता पाना चाहता है और मान-सम्मान पाने की इच्छा करता है, तो उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती है ठीक वैसे ही जैसे मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम “गया” पड़ गया।
10. सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर ।
होहिं बिषय रत मंद मंद तर ॥
काँच किरिच बदलें ते लेहीं ।
कर ते डारि परस मनि देहीं ॥
अर्थ – जो लोग मनुष्य का शरीर पाकर भी राम का भजन नहीं करते हैं और बुरे विषयों में खोए रहते हैं वे लोग उसी व्यक्ति की तरह मूर्खतापूर्ण आचरण करते हैं, जो पारस मणि को हाथ से फेंक देता है और काँच के टुकड़े हाथ में उठा लेता है।
11. मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक ।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक ।।
अर्थ – परिवार के मुखिया को मुँह के जैसा होना चाहिए, जो खाता-पीता मुख से है और शरीर के सभी अंगों का अपनी बुद्धि से पालन-पोषण करता है।
12. तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ ।।
अर्थ – जो लोग दूसरों की निन्दा करके खुद सम्मान पाना चाहते हैं ऐसे लोगों के मुँह पर ऐसी कालिख लग जाती है, जो लाखों बार धोने से भी नहीं हटती है।
13. बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि ।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
अर्थ – किसी की मीठी बातों और किसी के सुंदर कपड़ों से, किसी पुरुष या स्त्री के मन की भावना कैसी है यह नहीं जाना जा सकता है. क्योंकि मन से मैले सूर्पनखा, मारीच, पूतना और रावण के कपड़े बहुत सुन्दर थे।
14. तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
अर्थ – किसी व्यक्ति के सुंदर कपड़े देखकर केवल मूर्ख व्यक्ति ही नहीं बल्कि बुद्धिमान लोग भी धोखा खा जाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे मोर के पंख और उसकी वाणी अमृत के जैसी लगती है, लेकिन उसका भोजन सांप होता है।
15. सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस ।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ।।
अर्थ – मंत्री (सलाहकार), चिकित्सक और शिक्षक यदि ये तीनों किसी डर या लालच से झूठ बोलते हैं, तो राज्य, शरीर और धर्म का जल्दी ही नाश हो जाता है।
16. एक अनीह अरूप अनामा ।
अज सच्चिदानन्द पर धामा ।।
ब्यापक विश्वरूप भगवाना ।
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना ।।
अर्थ – भगवान एक हैं, उन्हें कोई इच्छा नहीं है उनका कोई रूप या नाम नहीं है वे अजन्मा और परमानंद के परमधाम हैं वे सर्वव्यापी विश्वरूप हैं उन्होंने अनेक रूप, अनेक शरीर धारण कर अनेक लीलाएँ की हैं।
17. सो केवल भगतन हित लागी ।
परम कृपाल प्रनत अनुरागी ।।
जेहि जन पर ममता अति छोहू ।
जेहि करूना करि कीन्ह न कोहू ।।
अर्थ – प्रभु भक्तों के लिये ही सब लीला करते हैं वे परम कृपालु और भक्त के प्रेमी हैं भक्त पर उनकी ममता रहती है वे केवल करुणा करते हैं वे किसी पर क्रोध नही करते हैं।
18. जपहिं नामु जन आरत भारी ।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी ।
राम भगत जग चारि प्रकारा ।
सुकृति चारिउ अनघ उदारा ।।
अर्थ – संकट में पड़े भक्त नाम जपते हैं तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं. संसार में चार तरह के अर्थात आर्त; जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त हैं और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते हैं।
19. सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन ।
नाम सुप्रेम पियुश हृद तिन्हहुॅ किए मन मीन ।।
अर्थ – जो सभी इच्छाओं को छोड़कर राम भक्ति के रस में लीन होकर राम नाम प्रेम के सरोवर में अपने मन को मछली के रूप में रहते हैं और एक क्षण भी अलग नही रहना चाहते वही सच्चा भक्त है।
20. भगति निरुपन बिबिध बिधाना।
क्षमा दया दम लता विताना ।
सम जम नियम फूल फल ग्याना।
हरि पद रति रस बेद बखाना ।।
अर्थ – अनेक तरह से भक्ति करना एवं क्षमा, दया, इन्द्रियों का नियंत्रण, लताओं के मंडप समान हैं मन का नियमन अहिंसा, सत्य, अस्तेय ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राण धन, भक्ति के फूल और ज्ञान फल है। भगवान के चरणों में प्रेम भक्ति का रस है वेदों ने इसका वर्णन किया है।
21. झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें ।
जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचाने ।।
जेहि जाने जग जाई हेराई ।
जागें जथा सपन भ्रम जाई ।।
अर्थ – ईश्वर को नही जानने से झूठ सत्य प्रतीत होता है बिना पहचाने रस्सी से सांप का भ्रम होता है लेकिन ईश्वर को जान लेने पर संसार का उसी प्रकार लोप हो जाता है जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम मिट जाता है।
22. जिन्ह हरि कथा सुनी नहि काना ।
श्रवण रंध्र अहि भवन समाना ।।
अर्थ – जिसने अपने कानों से प्रभु की कथा नही सुनी उसके कानों के छेद सांप के बिल के समान हैं।
23. जिन्ह हरि भगति हृदय नहि आनी ।
जीवत सब समान तेइ प्राणी ।।
जो नहि करई राम गुण गाना ।
जीह सो दादुर जीह समाना ।।
अर्थ – जिसने भगवान की भक्ति को हृदय में नही लाया वह प्राणी जीवित मूर्दा के समान है जिसने प्रभु के गुण नही गाया उसकी जीभ मेंढ़क की जीभ के समान है।
24. कुलिस कठोर निठुर सोई छाती ।
सुनि हरि चरित न जो हरसाती ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – उसका हृदय बृज की तरह कठोर और निश्ठुर है जो ईश्वर का चरित्र सुनकर प्रसन्न नही होता है।
25. सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा ।
गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई ।
भगत प्रेम बश सगुन सो होई ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है. मुनि पुराण पंडित बेद सब ऐसा कहते जो निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है।
26. हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता ।
कहहि सुनहि बहु बिधि सब संता ।।
रामचंन्द्र के चरित सुहाए ।
कलप कोटि लगि जाहि न गाए ।।
अर्थ – भगवान अनन्त है, उनकी कथा भी अनन्त है संत लोग उसे अनेक प्रकार से वर्णन करते हैं श्रीराम के सुन्दर चरित्र करोड़ों युगों मे भी नही गाये जा सकते हैं।
27. प्रभु जानत सब बिनहि जनाएँ ।
कहहुॅ कवनि सिधि लोक रिझाए ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – प्रभु तो बिना बताये ही सब जानते हैं अतः संसार को प्रसन्न करने से कभी भी सिद्धि प्राप्त नही हो सकती।
28. तपबल तें जग सुजई बिधाता ।
तपबल बिश्णु भए परित्राता ।।
तपबल शंभु करहि संघारा ।
तप तें अगम न कछु संसारा ।।
अर्थ – तपस्या से कुछ भी प्राप्ति दुर्लभ नही है इसमें शंका आश्चर्य करने की कोई जरूरत नही है तपस्या की शक्ति से ही ब्रह्मा ने संसार की रचना की है और तपस्या की शक्ति से ही विष्णु इस संसार का पालन करते हैं तपस्या द्वारा ही शिव संसार का संहार करते हैं दुनिया में ऐसी कोई चीज नही जो तपस्या द्वारा प्राप्त नही किया जा सकता है।
29. हरि व्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मै जाना ।
देस काल दिशि बिदि सिहु मांही। कहहुॅ सो कहाॅ जहाॅ प्रभु नाहीं ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – भगवान सब जगह हमेशा समान रूप से रहते हैं और प्रेम से बुलाने पर प्रगट हो जाते हैं. वे सभी देश विदेश एव दिशाओं में व्याप्त हैं कहा नही जा सकता कि प्रभु कहाँ नही है।
30. तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय ।
जन गुन गाहक राम दोस दलन करूनायतन ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – प्रभु पूर्णकाम सज्जनों के शिरोमणि और प्रेम के प्यारे हैं प्रभु भक्तों के गुण ग्राहक बुराईयों का नाश करने वाले और दया के धाम हैं।
31. करहिं जोग जोगी जेहि लागी ।
कोहु मोहु ममता मदु त्यागी ।।
व्यापकु ब्रह्मु अलखु अविनासी ।
चिदानंदु निरगुन गुनरासी ।।
योगी जिस प्रभु के लिये क्रोध मोह ममता और अहंकार को त्यागकर योग साधना करते हैं – वे सर्वव्यापक ब्रह्म अब्यक्त अविनासी चिदानंद निर्गुण और गुणों के खान हैं।
32. मन समेत जेहि जान न वानी ।
तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ।।
महिमा निगमु नेति कहि कहई ।
जो तिहुॅ काल एकरस रहई ।।
जिन्हें पूरे मन से शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता जिनके बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता – जिनकी महिमा बेदों में नेति कहकर वर्णित है और जो हमेशा एकरस निर्विकार रहते हैं।
मित्रता पर तुलसीदास के दोहे
1. जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि विलोकत पातक भारी ।।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना ।
मित्रक दुख रज मेरू समाना ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होता है उसे देखने से भी भारी पाप लगता है अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान दुख को सुमेरू पर्वत के समान समझना चाहिए।
2. जिन्ह कें अति मति सहज न आई ।
ते सठ कत हठि करत मिताई ।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।
गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा ।।
अर्थ – जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल जिद करके ही किसी से मित्रता करते हैं सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोककर सही रास्ते पर चलाता है और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करता है।
3. देत लेत मन संक न धरई ।
बल अनुमान सदा हित करई ।।
विपति काल कर सतगुन नेहा ।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा ।।
अर्थ – मित्र से लेन देन करने में शंका न करे अपनी शक्ति अनुसार हमेशा मित्र की भलाई करे वेद के अनुसार संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह-प्रेम करता है अच्छे मित्र के यही गुण हैं।
4. आगें कह मृदु वचन बनाई ।
पाछे अनहित मन कुटिलाई ।।
जाकर चित अहिगत सम भाई ।
अस कुमित्र परिहरेहि भलाई ।।
अर्थ – जो सामने बना-बनाकर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुरी भावना रखता है तथा जिसका मन सांप की चाल के जैसा टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में ही भलाई है।
5. सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं ।
माया कृत परमारथ नाहीं ।।
अर्थ – इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख और दुख, माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।
6. सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – देवता, आदमी, मुनि – सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु ही प्रेम करते हैं।
7. कठिन कुसंग कुपंथ कराला ।
तिन्ह के वचन बाघ हरि ब्याला ।।
गृह कारज नाना जंजाला ।
ते अति दुर्गम सैल विसाला ।।
अर्थ – खराब संगति अत्यंत बुरा रास्ता है उन कुसंगियों के बोल बाघ, सिंह और सांप की भांति हैं घर के कामकाज में अनेक झंझट ही बड़े बीहड़ विशाल पहाड़ की तरह हैं।
8. सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई ।
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई ।।
समरथ कहुॅ नहि दोश् गोसाईं ।
रवि पावक सुरसरि की नाई ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगा जी को अपवित्र नही कहता सूर्य, आग और गंगा की तरह समर्थ व्यक्ति को कोई दोष नही लगाता है।
9. तुलसी देखि सुवेसु भूलहिं मूढ न चतुर नर ।
सुंदर के किहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
अर्थ – हिंदी अर्थ – सुंदर वेश भुषा देखकर मूर्ख ही नही चतुर लोग भी धोखा में पर जाते हैं मोर की बोली बहुत प्यारी अमृत जैसा है परन्तु वह भोजन सांप का खाता है।
10. बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं ।
गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं ।।
जलधि अगाध मौलि बह फेन ।
संतत धरनि धरत सिर रेनू ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – बडे लोग छोटों पर प्रेम करते हैं पहाड़ के सिर में हमेशा घास रहता है अथाह समुद्र में फेन जमा रहता है एवं धरती के मस्तक पर हमेशा धूल रहता है।
11. बैनतेय बलि जिमि चह कागू । जिमि ससु चाहै नाग अरि भागू ।।
जिमि चह कुसल अकारन कोही । सब संपदा चहै शिव द्रोही ।।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई । अकलंकता कि कामी लहई ।।
अर्थ – यदि गरूड का हिस्सा कौआ और सिंह का हिस्सा खरगोश चाहे – अकारण क्रोध करने वाला अपनी कुशलता और शिव से विरोध करने वाला सब तरह की संपत्ति चाहे – लोभी अच्छी कीर्ति और कामी पुरूष बदनामी और कलंक नही चाहे तो उन सभी की इच्छाएं व्यर्थ हैं।
12. ग्रह भेसज जल पवन पट पाई कुजोग सुजोग ।
होहिं कुवस्तु सुवस्तु जग लखहिं सुलक्षन लोग ।।
अर्थ – ग्रह दवाई पानी हवा वस्त्र – ये सब कुसंगति और सुसंगति पाकर संसार में बुरे और अच्छे वस्तु हो जाते हैं ज्ञानी और समझदार लोग ही इसे जान पाते हैं।
13. को न कुसंगति पाइ नसाई।
रहइ न नीच मतें चतुराई ।।
अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं – खराब संगति से सभी नष्ट हो जाते हैं नीच लोगों के विचार के अनुसार चलने से चतुराई, बुद्धि भ्रष्ट हो जाती हैं।
14. तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।
अर्थ – यदि तराजू के एक पलड़े पर स्वर्ग के सभी सुखों को रखा जाये तब भी वह एक क्षण के सत संग से मिलने बाले सुख के बराबर नहीं हो सकता।
15. सुनहु असंतन्ह केर सुभाउ।
भूलेहु संगति करिअ न काउ।।
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।
जिमि कपिलहि घालइ हरहाई।।
अर्थ – अब असंतों का गुण सुनें। कभी भूल वश भी उनका साथ न करें। उनकी संगति हमेशा कष्ट कारक होता है। खराब जाति की गाय अच्छी दुधारू गाय को अपने साथ रखकर खराब कर देती है।
16. खलन्ह हृदयॅ अति ताप विसेसी ।
जरहिं सदा पर संपत देखी ।।
जहॅ कहॅु निंदासुनहि पराई ।
हरसहिं मनहुॅ परी निधि पाई ।।
अर्थ – दुर्जन के हृदय में अत्यधिक संताप रहता है। वे दूसरों को सुखी देखकर जलन अनुभव करते हैं दूसरों की बुराई सुनकर खुश होते हैं जैसे कि रास्ते में गिरा खजाना उन्हें मिल गया हो।
17. काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।।
वयरू अकारन सब काहू सों । जो कर हित अनहित ताहू सों ।।
अर्थ – वे काम, क्रोध, अहंकार, लोभ के अधीन होते हैं। वे निर्दयी, छली, कपटी एवं पापों के भंडार होते हैं। वे बिना कारण सबसे दुश्मनी रखते हैं। जो भलाई करता है वे उसके साथ भी बुराई ही करते हैं।
18. झूठइ लेना झूठइ देना । झूठइ भोजन झूठ चवेना ।।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा । खाइ महा अति हृदय कठोरा ।।
अर्थ – दुष्ट का लेना देना सब झूठा होता है। उसका नाश्ता भोजन सब झूठ ही होता है जैसे मोर बहुत मीठा बोलता है पर उसका दिल इतना कठोर होता है कि वह बहुत विषधर सांप को भी खा जाता है। इसी तरह उपर से मीठा बोलने बाले अधिक निर्दयी होते हैं।
19. द्रोही पर दार पर धन पर अपवाद ।
तें नर पाॅवर पापमय देह धरें मनुजाद ।।
अर्थ – वे दूसरों के द्रोही परायी स्त्री और पराये धन तथा पर निंदा में लीन रहते हैं। वे पामर और पाप युक्त मनुष्य शरीर में राक्षस होते हैं।
20. लोभन ओढ़न लोभइ डासन ।
सिस्नोदर नर जमपुर त्रास ना ।।
काहू की जौं सुनहि बड़ाई ।
स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई ।।
अर्थ – लोभ लालच ही उनका ओढ़ना और विछा वन होता है। वे जानवर की तरह भोजन और मैथुन करते हैं। उन्हें यमलोक का डर नहीं होता। किसी की प्रशंसा सुनकर उन्हें मानो बुखार चढ़ जाता है।
21. जब काहू कै देखहिं बिपती ।
सुखी भए मानहुॅ जग नृपति ।।
स्वारथ रत परिवार विरोधी ।
लंपट काम लोभ अति क्रोधी ।।
अर्थ – वे जब दूसरों को विपत्ति में देखते हैं तो इस तरह सुखी होते हैं जैसे वे ही दुनिया के राजा हों। वे अपने स्वार्थ में लीन परिवार के सभी लोगों के विरोधी, काम वासना और लोभ में लम्पट एवं अति क्रोधी होते हैं।
22. मातु पिता गुर विप्र न मानहिं ।
आपु गए अरू घालहिं आनहि ।।
करहिं मोहवस द्रोह परावा ।
संत संग हरि कथा न भावा ।।
अर्थ – वे माता पिता गुरू ब्राम्हण किसी को नही मानते। खुद तो नष्ट रहते ही हैं दूसरों को भी अपनी संगति से बर्बाद करते हैं। मोह में दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें संत की संगति और ईश्वर की कथा अच्छी नहीं लगती है।
23. अवगुन सिधुं मंदमति कामी ।
वेद विदूसक परधन स्वामी ।।
विप्र द्रोह पर द्रोह बिसेसा ।
दंभ कपट जिए धरें सुवेसा ।।
अर्थ – वे दुर्गुणों के सागर, मंदबुद्धि, कामवासना में रत वेदों की निंदा करने बाला जबरदस्ती दूसरों का धन लूटने वाला, द्रोही विशेषत: ब्राह्मनों के शत्रु होते हैं। उनके दिल में घमंड और छल भरा रहता है पर उनका लिबास बहुत सुन्दर रहता है।
24. भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी ।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता ।
सत संगति संसृति कर अंता ।।
अर्थ – भक्ति स्वतंत्र रूप से समस्त सुखों की खान है। लेकिन बिना संतों की संगति के भक्ति नही मिल सकती है। पुनः बिना पुण्य अर्जित किये संतों की संगति नहीं मिलती है। संतों की संगति हीं जन्म मरण के चक्र से छुटकारा देता है।
25. जेहि ते नीच बड़ाई पावा ।
सो प्रथमहिं हति ताहि नसाबा ।।
धूम अनल संभव सुनु भाई ।
तेहि बुझाव घन पदवी पाई ।।
अर्थ – नीच आदमी जिससे बड़प्पन पाता है वह सबसे पहले उसी को मारकर नाश करता है। आग से पैदा धुंआ मेघ बनकर सबसे पहले आग को बुझा देता है।
26. रज मग परी निरादर रहई ।
सब कर पद प्रहार नित सहई।।
मरूत उड़ाव प्रथम तेहि भरई ।
पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।।
अर्थ – धूल रास्ते पर निरादर पड़ी रहती है और सभी के पैर की चोट सहती रहती है। लेकिन हवा के उड़ाने पर वह पहले उसी हवा को धूल से भर देती है। बाद में वह राजाओं के आँखों और मुकुटों पर पड़ती है।
27. सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा ।
बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ।।
कवि कोविद गावहिं असि नीति ।
खल सन कलह न भल नहि प्रीती ।।
अर्थ – बुद्धिमान मनुष्य नीच की संगति नही करते हैं। कवि एवं पंडित नीति कहते हैं कि दुष्ट से न झगड़ा अच्छा है न ही प्रेम।
28. उदासीन नित रहिअ गोसांई ।
खल परिहरिअ स्वान की नाई ।।
अर्थ – दुष्ट से सर्वदा उदासीन रहना चाहिये। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिये।
29. सन इब खल पर बंधन करई ।
खाल कढ़ाइ बिपति सहि मरई ।।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी ।
अहि मूशक इब सुनु उरगारी ।।
अर्थ – कुछ लोग जूट की तरह दूसरों को बाॅधते हैं। जूट बाॅधने के लिये अपनी खाल तक खिंचवाता है। वह दुख सहकर मर जाता है। दुष्ट बिना स्वार्थ के साॅप और चूहा के समान बिना कारण दूसरों का अपकार करते हैं।
30. पर संपदा बिनासि नसाहीं ।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं ।।
दुश्ट उदय जग आरति हेतू ।
जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।।
अर्थ – तुलसी जी कहते हैं कि – वे दूसरों का धन बर्बाद करके खुद भी नष्ट हो जाते हैं जैसे खेती का नाश करके ओला भी नाश हो जाता है। दुष्ट का जन्म प्रसिद्ध नीच ग्रह केतु के उदय की तरह संसार के दुख के लिये होता है।
31. जद्यपि जग दारून दुख नाना।
सब तें कठिन जाति अवमाना।
अर्थ – इस संसार में अनेक भयानक दुख हैं किन्तु सब से कठिन दुख जाति अपमान है।
32. रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु ।
अजहुॅ देत दुख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु ।।
अर्थ – तुलसी जी कहते हैं कि – बुद्धिमान शत्रु अकेला रहने पर भी उसे छोटा नही मानना चाहिये। राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य एवं चन्द्रमा को ग्रसित कर दुख देता है।
33. भरद्वाज सुनु जाहि जब होइ विधाता वाम ।
धूरि मेरूसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम ।।
अर्थ – तुलसी जी कहते हैं कि – जब ईश्वर विपरीत हो जाते हैं तब उसके लिये धूल पर्वत के समान पिता काल के समान और रस्सी सांप के समान हो जाती है।
34. सासति करि पुनि करहि पसाउ ।
नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाउ ।।
अर्थ – तुलसी जी कहते हैं कि – अच्छे स्वामी का यह सहज स्वभाव है कि पहले दण्ड देकर पुनः बाद में सेवक पर कृपा करते हैं।
35. सुख संपति सुत सेन सहाई ।
जय प्रताप बल बुद्धि बडाई ।।
नित नूतन सब बाढत जाई ।
जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई ।।
अर्थ – तुलसी जी कहते हैं कि – सुख, धन, संपत्ति, संतान, सेना, मददगार, विजय, प्रताप, बुद्धि, शक्ति और प्रशंसा जैसे जैसे नित्य बढते हैं, वैसे वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता है।
36. जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीढी ।
नहि पावहिं परतिय मनु डीठी ।।
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं ।
ते नरवर थोरे जग माहीं ।।
अर्थ – गोस्वामी जी कहते हैं कि – ऐसे वीर जो रणक्षेत्र से कभी नहीं भागते, दूसरों की स्त्रियों पर जिनका मन और दृष्टि कभी नहीं जाता और भिखारी कभी जिनके यहाँ से खाली हाथ नहीं लौटते ऐसे उत्तम लोग संसार में बहुत कम हैं।
37. टेढ जानि सब बंदइ काहू ।
वक्र्र चंद्रमहि ग्रसई न राहू ।।
अर्थ – गोस्वामी जी कहते हैं कि – टेढा जानकर लोग किसी भी व्यक्ति की बंदना प्रार्थना करते हैं। टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता है।
38. सेवक सदन स्वामि आगमनु ।
मंगल मूल अमंगल दमनू ।।
अर्थ – गोस्वामी जी कहते हैं कि – सेवक के घर स्वामी का आगमन सभी मंगलों की जड और अमंगलों का नाश करने वाला होता है।
39. काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि ।
तिय विसेश पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसकानि ।।
अर्थ – गोस्वामी जी कहते हैं कि – भरत की मां हंसकर कहती है – कानों, लंगरों और कुवरों को कुटिल और खराब चाल चलन वाला जानना चाहिये।
40. कोउ नृप होउ हमहिं का हानि ।
चेरी छाडि अब होब की रानी ।।
अर्थ – महाकवि कहते हैं कि – कोई भी राजा हो जाये – हमारी क्या हानि है।
41. दासी छोड क्या मैं अब रानी हो जाउॅगा ।
तसि मति फिरी अहई जसि भावी ।।
अर्थ – महाकवि कहते हैं कि – जैसी भावी होनहार होती है – वैसी ही बुद्धि भी फिर बदल जाती है।
42. रहा प्रथम अब ते दिन बीते ।
समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते ।।
अर्थ – पहले वाली बात बीत चुकी है समय बदलने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।
43. अरि बस दैउ जियावत जाही ।
मरनु नीक तेहि जीवन चाही ।।
अर्थ – ईश्वर जिसे शत्रु के अधीन रखकर जिन्दा रखें, उसके लिये जीने की अपेक्षा मरना अच्छा है।
44. सूल कुलिस असि अंगवनिहारे ।
ते रतिनाथ सुमन सर मारे ।।
अर्थ – जो व्यक्ति त्रिशूल, बज्र और तलवार आदि की मार अपने अंगों पर सह लेते हैं वे भी कामदेव के पुष्प बाण से मारे जाते हैं।
45. कवने अवसर का भयउॅ नारि विस्वास ।
जोग सिद्धि फल समय जिमि जतिहि अविद्या नास ।।
अर्थ – किस मौके पर क्या हो जाये-स्त्री पर विश्वास करके कोई उसी प्रकार मारा जा सकता है जैसे योग की सिद्धि का फल मिलने के समय योगी को अविद्या नष्ट कर देती है।
46. दुइ कि होइ एक समय भुआला।हॅसब ठइाइ फुलाउब गाला ।
दानि कहाउब अरू कृपनाई।होइ कि खेम कुसल रीताई ।।
अर्थ – ठहाका मारकर हँसना और क्रोध से गाल फुलाना एक साथ एक ही समय में सम्भव नहीं है। दानी और कृपण बनना तथा युद्ध में बहादुरी और चोट भी नहीं लगना कदापि सम्भव नही है।
47. सत्य कहहिं कवि नारि सुभाउ ।
सब बिधि अगहु अगाध दुराउ ।।
निज प्रतिबिंबु बरूकु गहि जाई ।
जानि न जाइ नारि गति भाई ।।
अर्थ – स्त्री का स्वभाव समझ से परे, अथाह और रहस्यपूर्ण होता है। कोई अपनी परछाई भले पकड़ ले पर वह नारी की चाल नहीं जान सकता है।
48. काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ ।
का न करै अवला प्रवल केहि जग कालु न खाइ ।।
अर्थ – अग्नि किसे नही जला सकती है? समुद्र में क्या नही समा सकता है? अबला नारी बहुत प्रबल होती है और वह कुछ भी कर सकने में समर्थ होती है। संसार में काल किसे नही खा सकता है?
49. जहॅ लगि नाथ नेह अरू नाते ।
पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते ।।
तनु धनु धामु धरनि पुर राजू ।
पति विहीन सबु सोक समाजू ।।
अर्थ – पति बिना लोगों का स्नेह और नाते रिश्ते सभी स्त्री को सूर्य से भी अधिक ताप देने बाले होते हैं शरीर धन घर धरती नगर और राज्य यह सब स्त्री के लिये पति के बिना शोक दुख के कारण होते हैं।
50. सुभ अरू असुभ करम अनुहारी ।
ईसु देइ फल हृदय बिचारी ।।
करइ जो करम पाव फल सोई ।
निगम नीति असि कह सबु कोई ।।
अर्थ – ईश्वर शुभ और अशुभ कर्मों के मुताबिक हृदय में विचार कर फल देता है। ऐसा ही वेद नीति और सब लोग कहते हैं।
51. काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ।।
अर्थ – कोई भी किसी को दुख-सुख नही दे सकता है सभी को अपने ही कर्मों का फल भोगना पड़ता है।
52. जोग वियोग भोग भल मंदा ।
हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा ।।
जनमु मरनु जहॅ लगि जग जालू ।
संपति बिपति करमु अरू कालू ।।
अर्थ – मिलाप और बिछुड़न, अच्छे बुरे भोग, शत्रु मित्र और तटस्थ -ये सभी भ्रम के फांस हैं। जन्म, मृत्यु संपत्ति, विपत्ति कर्म और काल- ये सभी इसी संसार के जंजाल हैं।
FAQ
उत्तर :- रचनाएँ इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली आदि।
उत्तर :- तुलसीदास ने अपने समस्त काव्य ग्रंथों में राम के प्रति अनन्य भक्ति-भाव व्यक्त किया है ।
उत्तर :- रामचरितमानस में 12,800 पंक्तियाँ हैं, जो 1,073 दोहों और सात कांड में विभाजित हैं. गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस गेय शैली में है।
उत्तर :- नरहरिदास तुलसीदास (1532-1623) के गुरू माने जाते है।
उत्तर :- अवधी भाषा
उत्तर :- तुलसीदास का मूल नाम राम बोला दुबे था।
उत्तर :- उन्होंने संस्कृत, अवधी और बृज भाषा में कई लोकप्रिय रचनाएँ लिखीं, लेकिन उन्हें हनुमान चालीसा और महाकाव्य रामचरितमानस के लेखक के रूप में जाना जाता है, जो स्थानीय भाषा अवधी भाषा में राम के जीवन पर आधारित संस्कृत रामायण का पुनर्कथन है।
उत्तर :- गोस्वामी तुलसीदास संत को रामायण के रचयिता वाल्मिकी का अवतार माना जाता है।
उम्मीद हैं आपको तुलसीदास जी के दोहे की जानकारी पसंद आयी होगी।
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